हरिहर विचित्तर

Harihar Vichittar

(Illustrations: Raj Kumari)

पिछले साल झाई जी (नानी) के घर (हरियाणा में यमुना नगर) गया तो वहां पहुँचते ही सब आस-पास जमा हो गए। मामा, मामी, दीदी, और मेरी माँ. सब नानी से पूछने लगे – ‘पहचानो कौन आया है?’ नानी देखती रहीं मुझे, करीबन आधा मिनट। फिर उनके चेहरे पर एक हलकी मुस्कान आई और उनके मुंह से निकला – ‘हरिहर!’ मुझे तब समझ आया नानी की याददाश्त जा रही है। सब हँसते हुए कह रहे थे ‘चल परावा…तैनू वी पुल्ल गयी…’ (चल भाई, तुझे भी भूल गयी) और मैं सोच रहा था क्या-क्या पूछना रह गया झाई जी से। कितनी बातें तो की ही नहीं कभी। सोचा था बचपन के बारे में पूछूंगा उनके, विभाजन से पहले पाकिस्तान में गुज़ारे दिनों के किस्से सुनूंगा, पर अब?

वहां चार दिन रुका और हर वक्त यह सिलसिला चलता रहा। जो भी नया पुराना बंदा घर आया, उसे झाई जी के सामने पेश किया गया और झाई जी ने उसे पहचानने की कोशिश की। शायद सब लोग अपना दुःख इस बचकाने से खेल में डुबोने की कोशिश कर रहे थे। कई बार उनको नाम याद रहता था लेकिन बंदा कौन है या किस उम्र का है यह भूल जाते थे। जैसे मेरे पापा को कहने लगे ‘मदन लाल…हुन्न व्या करवा ले!’ (मदन लाल…अब शादी करवा ले।) या कई बार कोई बहुत पुरानी बात याद आ जाती और वो डर के अपना सारा सामान अपने बक्से में भरने लगतीं। ‘छेती कर…निकलन दा वखत हो गया।’ (जल्दी करो…निकलने का वक्त हो गया।) पर इस सब के बीच एक नाम बार-बार आता – हरिहर। हर तीसरे बन्दे को नानी हरिहर बोल देतीं। मैंने माँ से पूछा हरिहर कौन? माँ ने कहा पता नहीं। घर में बाकी किसी को भी हमारे पूरे खानदान में किसी हरिहर की कोई खबर नहीं थी। दूसरा दिन बीतते-बीतते झाई जी को मेरी शक्ल याद आ गयी। मुझे बुलाया और पूछा ‘बम्बई च सब चंगा?’ (बम्बई में सब बढ़िया ना?) मैंने पूछा ‘हरिहर कौन है?’ झाई जी ने आसपास देखा और धीरे से मुझे इशारे में कहा – बाद च दस्सांगी! अगले दिन घर पर जब कोई नहीं था तो फिर से उनके पास गया और पूछा – ‘अब बताओ हरिहर कौन!’ उनका शून्य भाव देखकर मैंने याद दिलाया ‘मैं…आशू…बम्बई वाला! आपने कल कहा था बताओगे हरिहर कौन?’ झाई जी ने गुस्से में कहा ‘परां हट्ट.’ (दूर जा) और चादर में मुंह ढक के सो गए।

जिस दिन मुझे लौटना था उस दिन सुबह से शाम तक मुझे पहचाना ही नहीं। पिछली रात तो उन्होंने पूछा था नाना जी घर कितने बजे आयेंगे, और ख़ास ऑर्डर दिया था कि उनके लिए रोटी में मक्खन ना लगाया जाए। नाना जी को गुज़रे हुए ३ साल हो चुके थे लेकिन जब याददाश्त के सारे लिफ़ाफ़े दिमाग में ऊपर-नीचे हो चुके हों तो कौन गया, कौन रहा का हिसाब लगाना मुश्किल है। सुबह से कोई आज उन्हें परेशान भी नहीं कर रहा था। वो बस मन ही मन कुछ बुदबुदाए जा रहे थे. ‘चल हुन्न वापस चलिए…’ (चलो अब वापस चलते हैं), ‘मज्जां नू कौन देखेगा?’ (भैंसों को कौन देखेगा?), ‘सर लॉयल…लॉयल पुर।’ इन सबमें मुझे सिर्फ ‘लॉयल पुर’ ठीक से समझ में आया। आज़ादी के पहले नाना-नानी (और उनका बाकी का परिवार) लॉयलपुर में रहते थे जो अब पाकिस्तान का ल्यालपुर है। ल्यालपुर जिस अँगरेज़ अफसर ने बसाया (सर लॉयल) उसकी हमारे घर में बड़ी इज्ज़त है। हुआ ये था कि करीबन 1905 के आसपास, जब हमारे नाना जी का परिवार झांग नाम के शहर के पास वानिकी गाँव में रहता था तो एक दिन सर लॉयल अपने दल के साथ वहां आये। गाँव के बगल में ही एक जंगल था जहां सर लॉयल शिकार करने जा रहे थे। उन्हें शिकार के लिए घोड़े चाहिए थे और किसी ने उन्हें हमारे नाना के घर का ठिकाना दिया था। नाना के पिता-चाचा-ताऊ जमींदार थे और उनके पास घोड़ों और खच्चरों की कमी नहीं थी। अँगरेज़ अफसर को अच्छे से अच्छे घोड़े दिए गए। सर लॉयल इससे पहले कई बार शिकार पर जा चुके थे पर हमेशा खाली हाथ लौटे थे। बाकी अँगरेज़ अफसरों ने उनको सर फॉयल (बर्बाद) का नाम दे दिया था। लेकिन इस बार, नाना के खानदान की एक छोटी सी घोड़ी पर बैठकर उन्होंने अपना पहला जंगली सूअर मारा। अच्छा-ख़ासा बड़ा सूअर! लॉयल इतना खुश हुआ कि उसने मेरे नाना के परिवार को जल्दी ही बसने वाले एक नए शहर में दुकानें देने का वादा कर दिया। 3-4 साल बाद लॉयलपुर बसा – जिसके मुख्य बाज़ार (झांग बाज़ार) में नाना और उनके 7 भाइयों के लिए 8 दुकानें मिलीं। और इस तरह हमारा खेती करने वाला परिवार अचानक से बिज़नेस में आ गया। और क्योंकि हमारे घर में सर लॉयल का ये किस्सा अक्सर सुनाया जाता रहा होगा, बाकी लोग भले ही इस शहर को ल्यालपुर कहने लगे हों…हमारे घर वाले लॉयल पुर ही कहते थे।

और उस सुबह, झाई जी भी अपने यादों के बिखरे पिटारे में से लॉयल पुर वाली पर्ची उठा लायीं थीं। शाम को जब निकलते वक्त झाई जी के पैर छूने गया तो उन्होंने सर पे हाथ रखा और धीरे से कहा – हरिहर! मैंने उन्हें गले लगाया और जाने को हुआ तो उन्होंने कान में बुबुदाते हुए कहा – हरिहर उड़दा सी! विचित्तर सीगा! (हरिहर उड़ता था! विचित्र था!) मैंने थोडा तीखा सा ‘क्या?’ बोला और झाई जी चुपचाप पीछे हो कर लेट गए। हरिहर उड़ता था?  मैंने ठीक ही सुना ना? यमुना नगर से मुझे दिल्ली आना था और पूरे रास्ते मैं यही सोचता रहा कि हरिहर झाई जी के दिमाग में आया कहाँ से? मुझे याद आया कि इससे पहले मैंने झाई जी को कभी अपना पाकिस्तान का घर याद करते नहीं देखा। उनका यह कहना कि भैंसों को कौन देखेगा भी यही इशारा कर रहा था कि उन्हें विभाजन से पहले का अपना घर याद आ रहा था। वो घर, जिसके दरवाज़े पर वो एक दीवा जलता छोड़ आयीं थीं, यह सोच के कि बस कुछ दिनों के लिए ही जा रहे हैं। जब तक लौट के आयेंगे, यह दीवा रखवाली करेगा। 65 सालों बाद, उस दीवे की धीमी सी रौशनी उनके दिमाग के किसी अँधेरे कोने में फिर जली थी।

खैर, दिल्ली पहुँचते पहुँचते मैंने सोचा हरिहर कोई पालतू तोता होगा। लेकिन झाई जी की आँखों की वो अजीब सी शैतानी चमक क्या थी फिर? दिल्ली में मुझे बस एक ही रात रुकना था, अगली शाम को ट्रेन थी बम्बई के लिए।  अगले दिन एक दोस्त से मिलने की बजाय मैं बिना बताये झाई जी की बड़ी बहन के घर पहुँच गया। उनके पति,  बड़े नाना जी, जो कि झाई जी से करीबन 8 साल बड़े होंगे, हमारे परिवार में अब बचे लोगों में सबसे बुज़ुर्ग हैं। और अब तक बिलकुल स्वस्थ भी हैं। उनसे मैं पहले एक ही बार मिला था किसी शादी में और मुझे देखकर वो थोड़े हैरान भी हुए। मैंने उनसे साफ़ साफ़ सच कहा – ‘झाई जी ने किसी हरिहर का नाम लिया है। आपको पता है कौन है? घर में कोई तोता था क्या?’ उन्हें थोडा सोचना पड़ा। फिर बोले ‘तोता तो नहीं है पक्का। और क्या बोल रही थी माया देवी?’ मैंने और शब्द भी बताये जो वो बुदबुदा रहीं थीं। बड़े नाना बोले बातें तो सब विभाजन के आस-पास की हैं। उन दिनों जब दिल्ली के पास वाले रिफ्यूजी कैम्प पहुंचे थे तब झाई जी हर रोज़ सुबह उठते ही पूछते थे ‘आज वापस चलें? बड़े दिन हो गए आये हुए। अमरुद का पेड़ सूख रहा होगा।’ धीरे धीरे झाई जी को समझ आया कि शायद अब कभी वापस नहीं जायेंगे। ‘लेकिन सच कहें तो…करीबन 3-4 साल तक सबको उम्मीद लगी रही कि सरकार बोलेगी, जाओ भाई – अपने अपने घर वापस जाओ। तमाशा ख़तम हो गया।’ बड़े नाना ने बताया उसके बाद करीबन 8-10 साल तक झाई जी बड़े चुपचाप से रहे। पूरे घर में सबसे ज्यादा उम्मीद उन्हें ही थी कि वापस जायेंगे। और ऐसी तगड़ी उम्मीद जैसे किसी ने उन्हें बोल के रखा हो। लेकिन जब सन १९५० के बाद भी कुछ नहीं हुआ और मेरे सगे नाना जी और उनका छोटा भाई अपना परिवार लेकर दिल्ली से यमुना नगर चले गए और वहां फिर से नया काम शुरू करने की जुगत लगाने लगे, तब जाकर झाई जी की उम्मीद ख़तम हो गयी। लेकिन हरिहर कौन है…यह बड़े नाना को भी बिलकुल याद नहीं आया। हाँ जाते जाते उन्होंने ये भी बताया कि झाई जी, नाना, और उस समय तक उनके दो बेटे, सबसे अंत में पकिस्तान से आये थे। बाकी का पूरा परिवार सितम्बर के पहले हफ्ते तक आ गया था लेकिन झाई जी, नाना, और मेरे दो मामा अक्तूबर के दूसरे हफ्ते तक पाकिस्तान में ही, वानिकी गाँव के अपने पुश्तैनी मकान में डट के रहे और जब हिंसा बहुत ज्यादा बढ़ गयी, तब ही हिंदुस्तान आये। ‘अब इस बीच हरिहर नाम के किसी से तेरी झाई मिली हो तो पता नहीं ‘, बड़े नाना बोले।

मैं वापस बम्बई चला आया. पर दिमाग में सवाल चलते रहे. झाई जी को क्यों लगता था कि वापस जाने को मिलेगा? क्या आखिरी के ४ हफ़्तों में उन्हें कोई हरिहर मिला? लेकिन अगर सिर्फ उतने कम समय के लिए कोई मिला भी हो, अब तो उस बात को ६५ साल बीत गए. अचानक से वो कहाँ से याद आएगा? फिर मैंने सोचा कि एक बार मुझे भी अचानक से सपने में हमारे पहले घर के पास वाली नाई की दुकान के बाहर बंधी बकरियां दिखायीं दी थीं. वो बकरियां जिन्हें मैं भूल चुका था अचानक से मेरे सपने में आ गयीं और अगली सुबह मुझे उन बकरियों के साथ-साथ बचपन के बहुत से लोग याद आ गए. लेकिन फिर भी – यह हरिहर का मामला इतना सीधा नहीं लग रहा था.

अगले कुछ दिन मेरे बंबई में ही बीते। लेकिन इस बीच मैंने एक और बात पता लगा ली। नाना जी के परिवार का वानिकी में बाकियों से एक महीने ज्यादा रुकने का कारण भी झाई जी थे। मामा जी ने बताया झाई जी की तबीयत थोड़ी बिगड़ गयी थी इसलिए नाना जी ने बाकी भाइयों को बोला आप निकलो, हम बाद में आयेंगे। इस सब के बाद मुझे  यकीन होने लगा कि हरिहर की कहानी में कोई सच्चाई है। 1 महीने बाद ही मैं मौका निकाल के वापस यमुना नगर पहुँच गया। इस बार झाई जी ने देखते ही पहचान लिया – ‘आशू!’

रात को मैं झाई जी के पास ही सोने आ गया। सीधे पूछने के बजाय मैंने घुमा के बात शुरू की – ‘झाई जी मैनूं वी हरिहर दिस्या सी!’ (मुझे भी हरिहर दिखा था।) वो हँसे और बोले तुझे दिख ही नहीं सकता, वो सिर्फ मुझे दिखता है। ‘काद दिस्या सी?’ (कब दिखा था?), मैंने पूछा। ‘हले..’ (अभी!), उन्होंने कहा। ‘पहली बारी कदों दिस्या सी?’ (पहली बार कब दिखा था?) ‘पाकस्तान च।’ (पाकिस्तान में।) उसके बाद झाई जी चुप हो गए। फिर सोने का नाटक सा करने लगे। मैं भी इस अजीब सी कहानी का पीछा करते-करते थोड़ा थक गया था इसलिए सो गया। आधी रात बीती होगी, पानी पीने उठा तो देखा झाई जी जाग रहे हैं। उनसे पानी के लिए पूछा तो इशारे से मुझे बुलाया और बोले – ‘सच दस्सांगी!’ (सच बताऊंगी!) उसके बाद झाई जी ने जो मुझे बताया वो ही, उन्हीं के शब्दों में, मैं यहाँ लिखने जा रहा हूँ। हम लोग रात 1 बजे से सुबह 5 बजे तक बात करते रहे। बहुत ही अजीब सी बात थी जो मैंने उस रात सुनी और अब तक भरोसा करना थोडा मुश्किल ही है। लेकिन झाई जी के ‘सच दस्सांगी’ बोलने में जो ईमानदारी थी उसको भी मैं झुठला नहीं सकता। आगे की बात झाई जी के शब्दों में:

हरिहर अचानक से ही आ गया एक दिन। सबसे पहले सन 1946 में किसी दिन दिखा। जब कलकत्ता में दंगे हुए थे बहुत सारे। उससे पहले हमने ‘पाकिस्तान’ नाम का लफ्ज़ भी नहीं सुना था। या किसी ने बोला भी होगा तो हमने ध्यान नहीं दिया होगा। पर जब दंगे हो गए कलकत्ता में तो दादा जी (झाई जी के ससुर) एक दिन पिता जी (झाई जी के पति और मेरे नाना) से कह रहे थे – अब ज़्यादा दिन का बसेरा नहीं लगता यहाँ। सुना है लाहौर, ल्यालपुर, फैसलाबाद…सारा का सारा अलग कर देना है इन अंग्रेजों ने। उस रात मुझे नींद ही नहीं आई। मेरी बड़ी अच्छी सहेली थी वानिकी में – सुषमा रानी। उसको मैंने अगले दिन ये बात बताई तो वो भी बड़ा घबरा गयी। मैंने सोचा था वो मुझे संतावना देगी, समझाएगी कि ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता। वो तो उल्टा और डर गयी। जा के अपनी गाय और भैंसों से लग के रोने लगी। उसकी एक गाय लीला ४-५ दिन से बड़ी बीमार भी थी। लगता था मर जायेगी। पिछली रात से तो आँख भी नहीं खोली थी।

सुषमा को रोते देख मुझे भी रोना आ गया। हम दोनों फिर साथ बैठ के बड़ी देर रोईं और हिसाब लगाया कि छोड़ के जाना पड़ा तो क्या सामान ले जायेंगे और क्या रख जायेंगे। बस उसी वखत एक बन्दा आया। छोटे से कद का था – थोड़ी तीखी सी शकल थी…मतलब जैसे किसी ने छैनी-हथोड़ी से ठुड्डी और गाल को ठीक किया हो। ऐसा लगता था हाथ लगाओ तो हाथ छिल जाए। आया तो था बन्दा पानी मांगने…कहीं बाहर से आ रहा था शायद। बोला बहनजी पानी पिला दो। हमने पानी दिया और पूछा कहाँ से आ रहे हो तो बोला ‘पागलखाने से। यहीं गुजरांवाला के पास।’ हम थोडा डर गए पर बन्दा पागल नहीं दिखता था इसलिए भागे नहीं। सुषमा ने हिम्मत कर के पूछा – पागल हो क्या? बोला ‘ना जी, घरवालों ने झूठ-मूठ का फंसा दिया था ज़मीन के चक्कर में। यहीं गुजरांवाला के पास टोबा टेक सिंह नाम का गाँव है…वहां का रहने वाला हूँ। पर अब वापस अपने गाँव जाऊँगा तो मुझे फिर पागलखाने भेज देना है उन्होंने। मैं यहाँ रह जाऊँ, आपके तबेले में? गाय का काम चारा घुमाना वगैरह कर दूंगा!’ सुषमा ने साफ़ मना कर दिया। बन्दा चुपचाप पानी पी के चला गया।

अगली सुबह सुबह सुषमा आई और बड़ी खुश! बोली लीला (उसकी गाय) ठीक हो गयी एकदम। मैंने पूछा कैसे तो वो बोली बाद में बताऊंगी। दोपहर को जब सब सो गए मैं उसके पास गयी तो देखा वही बन्दा, वो पागल, वहां बैठा है तबेले के बाहर। सुषमा ने बताया इसी ने ठीक किया लीला को। रात भर सेवा की उसकी। गरम पानी से धोया लीला को, फिर पता नहीं कोई मंतर-शंतर पढ़ा कि खाली मालिश की – पर सुबह तक लीला पूरी चंगी ओ गयी। बन्दे का नाम पूछा मैंने तो बोला ‘खुद ही रख लो जी जो पसंद आये। मैं तो बेनाम ही हूँ।’ पता नहीं क्यों मेरे मूंह से निकला ‘हरिहर!’ या तो उसने लीला को ठीक किया था इसलिए निकला या पता नहीं क्यों, पर सुषमा को भी पसंद आया तो हमने कहा हम तुझे हरिहर ही बोलेंगे अब से।

उसके बाद वो वहीँ तबेले में रहने लगा। मेरे और सुषमा को छोड़ के किसी को नहीं पता था वो वहां रहता है। फिर थोड़े दिन बाद खबर आई कि कोई अंग्रेजों की मोया, क्या कहते हैं उसको, कमेटी सी आई है जो बताएगी पाकिस्तान बनना है या नहीं। उस वखत एक ही रेडियो हुआ करता था – पास के एक गाँव में। जिनका रेडियो था उनके घर मेरी ननद का रिश्ता हुआ था इसलिए दादा जी जा के खबरें सुन आते थे कभी कभी। एक दिन दादा जी सुन के आये और सबको बुलाया। अपने पूरे कुनबे को। और बोले लगता है पाकिस्तान बन के रहेगा। नेहरु और जिन्ना अड़ गए हैं। अमृतसर से लेकर कराची तक पूरा अलग हो जाना है। उनके सामने वैसे तो किसी के बोलने की हिम्मत नहीं होती थी पर उस दिन फिर भी मैंने पूछ लिया – ‘पाकिस्तान बनेगा तो हम यहीं नहीं रह सकते?’ दादा जी थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले – ‘रह सकते हैं। पर अगर हिंदुस्तान वालों ने मुसलमानों को निकाला तो पाकिस्तान वाले हम हिन्दुओं को निकालेंगे ही।’ मुझे बात तो समझ नहीं आई पर मैं चुप हो गयी।

Harihar 2

अगले दिन दोपहर को सुषमा से मिलने गयी तो हरिहर बोला ‘कुछ अलग नहीं होगा। आप मजे से रहो यहीं। कोई पाकिस्तान अलग नहीं होने वाला।’ सुषमा ने पूछा ‘तुझे कैसे पता?’ वो बोला वो दिल्ली देख के आया है – वहां सब कह रहे हैं कि कुछ नहीं होगा। मैंने कहा ‘ओये तू दिल्ली कब गया? पागलखाने से तो सीधे यहाँ आया था, और तब से यहीं है।’ तो वो बोला ‘मैं जा सकता हूँ। मुझे दिल्ली जाने में 15 मिनट नहीं लगते।’ मैं और सुषमा सोच ही रहे थे कि किस झल्ले को साथ रख लिया, पता नहीं क्या बकवास कर रहा है कि देखा हरिहर बाहर आके खड़ा हो गया आंगन में। उसने अपना गमछा सिर पे जोर से बाँध लिया, आँख बंद की, और शूऊऊऊऊऊऊओ कर के उड़ गया! हाँ जी, हवा में उड़ गया। सुषमा तो बेहोश ही हो गयी। उसे लगा कोई भूत-पिशाच है। थोड़ी देर में वापस आया, दिल्ली से जलेबी लेकर। मैंने पूछा तू भूत है कोई? बोला ना जी, मैं तो सीधा सादा बन्दा हूँ, भूत क्यों बना रहे हो मुझे? सुषमा ने पूछा फिर उड़ा कैसे? बोला उसे खुद नहीं पता। बस जब भी कोई चाहता है कि मैं उड़ जाऊं, मेरे अन्दर शक्ति आ जाती है। मेरे अपने हाथ में नहीं है। आपकी इच्छा से मेरे अन्दर शक्ति आती है। आपने सोचा गाय ठीक हो जाए, मेरे अन्दर शक्ति आई और वो ठीक हो गयी। आपने सोचा पाकिस्तान ना बने…मेरे अन्दर शक्ति आई और मैं दिल्ली जा के पता कर के आया। जलेबी भी आपने ही सोची होगी, नहीं? मैंने शर्मा के कहा हाँ मन तो कर रहा था खाने का। उसके बाद हरिहर ने हम दोनों को वादा किया कि पाकिस्तान नहीं बनेगा।

थोड़े दिन बाद सन ’47 आ गया। रोज रोज नयी खबरें आती थीं। कभी कोई कहता अंग्रेज जाने वाले हैं, कोई कहता अंग्रेजों के जाते ही चीन ने हमला कर देना है, कोई कहता पाकिस्तान बनेगा लेकिन जो जहां है वहीँ रहेगा, और कोई कहता तीन देश बनेंगे – हिंदुस्तान, पाकिस्तान, और वेला-स्तान। जिसको ना हिंदुस्तान में जाना है ना पाकिस्तान में वो वेला-स्तान में चला जाए। हरिहर ने कहा अगर वेला-स्तान बना तो वो उसमें ही जाएगा। मैंने पूछा सच बता, क्या होने वाला है। हरिहर ने बताया कि कुछ नहीं होने वाला। गांधी जी ने बोल दिया है कोई बंटवारा नहीं होगा, सब ख़ुशी ख़ुशी अपने घरों में रहो।

हरिहर की बातें सुन के हमको उम्मीद मिलती थी। वो बोलता था तो सच में लगता था कुछ नहीं होगा। लेकिन थोड़े ही दिन बाद लॉयलपुर के झांग बाज़ार में दंगे हो गए। पहली बार दंगे हुए थे। बच्चे गिल्ली-डंडा खेल रहे थे, एक गिल्ली उड़ के किसी दुकान में चली गयी। दुकानदार ने बच्चे को मारा। दुकानदार हिन्दू था, बच्चा मुसलमान। या बच्चा हिन्दू था, दुकानदार मुसलमान राम जाने। अब याद नहीं, पर इसी बात पे दंगे हो गए। अगले दिन खबर आई कि दंगों में २ छोटे बच्चों को चोट लगी थी लेकिन कोई आदमी उन्हें अपने कंधे पे उठा के गुजरांवाला के अस्पताल ले गया। बच्चे ने तो बोला वो उड़ के गया था लेकिन सबने सोचा बच्चा बेहोशी की हालत में समझ नहीं पाया होगा कि किसी के कंधे पे है कि उड़ रहा है। पर मुझे और सुषमा को पता था – ये आदमी हरिहर ही होगा। इसके बाद आये दिन कभी गुजरांवाला में और कभी लॉयल पुर में और कभी फैसलाबाद में दंगे होते रहते, और हर बार खबर आती कि एक बन्दा आया और कईयों की जान बचा के गया। लोगों ने इस बन्दे को कई नाम भी दे दिए पर अखबारों में सबसे ज्यादा जो मशहूर हुआ वो नाम था फ़्लाइंग गांधी! और मैंने और सुषमा ने उसका नाम बदल के कर दिया ‘हरिहर विचित्तर’। 

इसके बाद कभी-कभी वो घायल वापस आने लगा। रात को छुप-छुप के मैं आटा लेके जाती थी उसके लिए। गीला आटा लगा लो तो ज़ख़्म भर जाता है। तब रोने लगता था देख के कि कोई सेवा कर रहा है उसकी। मैंने पूछा एक बार कि माँ ने कभी बचपन में सेवा नहीं की, तो बोला बचपन में ही माँ को भी पागल कर दिया था घरवालों ने। तब से बस उसने सेवा की है दुनिया की, अपनी कभी नहीं करवाई। इसके बाद भी बड़े सारे दंगों में हरिहर ने लोगों को अस्पताल पहुंचाया या दुकानें जलने से बचाईं। धीरे धीरे मई आ गया और अंग्रेजों ने कहा 15 अगस्त को आज़ादी मिल जायेगी। पर हमें अभी भी समझ नहीं आया कि हमारा क्या होना है। हरिहर ने कहा कुछ नहीं होना – यहीं रहना है। कोई बंटवारा नहीं हो रहा। पर हरिहर को छोड़ के अब बाकी सब मानने लगे थे कि 6-7 महीने में यहाँ से जाना होगा। कई लोगों ने अपनी दुकानें बेचनी शुरू कर दी, सोना इकठ्ठा करना शुरू कर दिया।  सब सोच रहे थे 1947 ख़तम होते होते निकल जायेंगे। दादा जी एक दिन फिर रेडियो सुन के आये और सबको बुलाया। उन्होंने अपने सारे बेटों-दामादों को बोला दुकानें बेचनी शुरू करो।

मैं रात को ही हरिहर के पास गयी और उसे जगाया। उसने कहा वो अगले दिन पक्का पता लगाएगा असली सच क्या है। अगले दिन मैं और सुषमा शाम तक रस्ता तकते रहे पर वो आया ही नहीं। २-३ दिन तक नहीं आया तो हम डर गए। सोचा पता नहीं कुछ हो ना गया हो। पर 4 दिन बाद हरिहर सुबह-सुबह ही आ गया। बड़ा निश्चिन्त था। बोला गांधी जी से बात कर के आया है। हम दोनों तो वहीँ निहाल हो गए कि कोई बन्दा गांधी जी से मिल के आया है और हमारे सामने खड़ा है। उसने कहा गांधी जी अब तक नहीं माने हैं बंटवारे की बात। ऊपर-ऊपर से माने हैं बस, लेकिन उन्होंने कहा है वो जिन्ना और कोई मोया अंग्रेज था माउन्ट पाटन – उन दोनों से मिलेंगे और ठीक पन्द्रह अगस्त की पिछली शाम को ही मामला पलट देंगे। उन्होंने कहा है कि अभी बोलेंगे तो झगडा बढेगा। लोग ज्यादा शोर मचाएंगे क्योंकि अब बड़े सारे लोगों को फायदा दिखने लगा है बंटवारे में। लेकिन पन्द्रह अगस्त से 1-2 दिन पहले गाँधी जी जिन्ना को बुलायेंगे और बोलेंगे कि दोस्त कहाँ जा रहे हो, यहीं रहते हैं साथ-साथ। और गांधी जी को लगता है कि उस दिन, जब जाने का वखत नजदीक होगा, ये बोलने से जिन्ना को भी आंसू आ जायेंगे और वो रुक जाएगा। सुषमा ने पूछा तो ये बात तुझे खुद गांधी जी ने बताई? हरिहर बोला – हाँ जी। सब मुझे फ़्लाइंग गांधी कहते हैं, यह सुन के गांधी जी बड़ा हँसे। “और जिन्ना अगर उस दिन गांधी जी से मिला ही नहीं तो?’ – मैंने पूछा। ‘तो आपका ये हरिहर विचित्तर किस लिए है माया देवी जी!’ – हरिहर ने बोला ‘मैं लेके जाऊंगा…उड़ के। आपको बस सोचना है कि हरिहर उड़ के जा, जिन्ना को गाँधी जी से मिला, और बंटवारा रोक!’

उसके बाद का एक महीना तो बस हवा सरीखा गुजरा। रोज कोई न कोई अजीब खबर, रोज कोई न कोई जाने वाला। पर मैं और सुषमा खुश थे। जो भी जाता, हम उसको बोलते – ‘ओ जी…थोड़े दिनों में ही वापस आ जाना है आपने! कोई नहीं, अमृतसर तक घूम आओ। मत्था टेक आओ स्वर्ण मंदिर को!’ घर वाले सारे दिन भर दुखी, परेशान घुमते रहते थे, और मैं और सुषमा निश्चिन्त। करते करते १३ अगस्त १९४७ आ गया। २ दिन बाद आज़ादी मिलने वाली थी. पता नहीं कहाँ के लोग खुश थे, हमारे वानिकी में तो मातम सा ही था। आधा गाँव खाली हो रहा था। पड़ोस के गाँव में दंगे हो चुके थे। दिल में एक छोटा सा डर बैठना शुरू हो गया था। दादा जी कह रहे थे कि ये तो मामला बुरा लग रहा है। दुकानें अभी 8 में से 2 ही बिकी थीं, उनकी भी रकम आनी बाकी थी। दादा जी ने कहा कि कम से कम घर की जनानियों और बच्चों को लेके 2 बन्दे निकल चलो अभी। परसों के बाद यह पाकिस्तान हो जाना है, फिर मुश्किल बढ़ ही जायेगी। मैंने साफ़ कह दिया मैं नहीं जा रही, और कोई नहीं जाएगा। सब ठीक हो जाना है २-३ दिन में। बड़ी डांट पड़ी सबसे। मैंने कहा अच्छा परसों तक तो देख लो, आप खुद ही बोलोगे जाने का कोई फायदा नहीं। खैर सामान जोड़ने, बैलगाड़ी ढूँढने में वैसे ही दो दिन लगने थे। फिर दादा जी ने मुझे बुलाया और कहा – ‘घबरा मत, अभी जा रहे हैं, क्योंकि दंगे हो रहे हैं सब तरफ। 2-3 महीनों में वापस आ जायेंगे, दुकान की चाबियाँ एक जानने वाले को दी हैं, वो ध्यान रखेगा। वापस आके फिर या तो दुकान-मकान-खेत बेचेंगे या यहीं रुक जायेंगे अगर सब ठीक ठाक लगा। दिल छोटा नहीं करते!’ मेरा मन हुआ उनसे बोल दूं हरिहर सब ठीक कर देगा, पर मैंने सोचा पता नहीं हरिहर से तो पूछा नहीं है, उसके बारे में ऐसे ही किसी को नहीं बोलना चाहिए।

14 तारीख दोपहर को अचानक वानिकी में भी दंगाई आ गए। पहले दूर कहीं आग जलती दिखी, फिर धीरे धीरे, जैसे बाढ़ आई थी एक बार, आग हमारी तरफ आने लगी। मैं दौड़ी देखने कि सुषमा ठीक है ना तो देखा उसके तबेले में ही आग लग गयी है। सुषमा को बड़ी आवाजें दी पर लगा कोई है नहीं घर में। सब चले गए क्या? पर सुषमा मुझे बताये बिना कहाँ जायेगी, मैंने सोचा। तभी उसके घर के अन्दर से आवाज़ आई। अन्दर गयी तो देखा सुषमा को किसी ने चाकू मार दिया है। खूनोखून! मैं रो रो के चिल्लाने लगी ‘हरिहर…हरिहर…’ वापस अपने घर गयी तो सब मुझे ही ढूंढ रहे थे। मैंने कहा सुषमा को बचाओ तो सबने कहा अभी बस खुद को ही बचा सकते हैं। बैलगाड़ी लगा रहे हैं, उसी में सुषमा को भी ले जायेंगे, आगे रब-राखा। मैं वापस सुषमा को देखने गयी तो उसी वखत वहां हरिहर आया। उसने कहा – “आप चिंता मत करो, सुषमा बहनजी को कुछ नहीं होगा।” मैंने उसको हज़ार दुआएं दी और उसने जाते-जाते कहा – “और आप जाना मत वानिकी छोड़ के। मैं वापस आऊँगा, और अच्छी खबर ले के आऊँगा।”

उसके बाद किस्मत से बैलगाड़ी में सबके जाने की जगह नहीं थी और बड़ा सारा सामान भी था तो मैं, पिताजी, और हमारे दोनों पुत्तर रुक गए। पास वाले गाँव से एक और टोली आ रही थी अगले दिन, तो हमको कहा उनके साथ आ जाना। उसके बाद यहाँ ज्यादा दंगे भी नहीं हुए। २-३ टोलियाँ आयीं लेकिन हम किसी के साथ नहीं गए। मैंने पिताजी को हरिहर वाली पूरी बात बतायी और उन्हें भी लगा रुक जाते हैं। दिल्ली में गांधी जी और जिन्ना के बीच क्या हुआ ये पता लगाने का कोई तरीका ही नहीं था। सब लोग भाग ही रहे थे बस, ना कोई अखबार थी ना रेडियो। मैं हर रोज़ रात को सोते हुए हरिहर को याद करती, उसको उड़ने की ताकत देती, उसको नेमत बख्शती, और बोलती जब भी वखत हो हरिहर, आ जाना और अच्छी खबर दे जाना। पर दिन बीतते गए, हरिहर नहीं आया। एक-एक कर के हमारी सारी  दुकानों पे कब्ज़ा हो गया। पिताजी ने लॉयल पुर जाना छोड़ दिया। अगस्त ख़तम हुआ, सितम्बर आ गया। ना सुषमा की कोई खबर, ना हरिहर की, ना हमारे बाकी कुनबे की जो हमें छोड़ के सबसे पहले निकला था।

अब पिताजी का भरोसा भी हरिहर वाली कहानी से उठने लगा और एक दिन उन्होंने कहीं से एक टोली ढूंढ ली जो बोर्डर पार कर के जा रही थी। बोले चल अब, बहुत हो गया। यहाँ किसी भी दिन कोई आके कब्ज़ा कर लेगा घर पे। मैंने बीमारी का बहाना कर के उस बार टाल दिया। सितम्बर ख़तम होते-होते एक जानकार आया, दिल्ली से। उसने बताया कि हमारे घर के लोग दिल्ली के रिफ्यूजी कैम्प में पहुँच गए हैं। सारे के सारे नहीं पहुंचे, पर अधिकतर ठीक-ठाक हैं। अब पिताजी ने सोच लिया कि जाना ही है। इसी बीच अखबार में एक अजीब सी खबर आई जिसमें लिखा था – जिन्ना ने कहा कि उसे दिल्ली की याद आ रही है और कल सपने में उड़ के वो दिल्ली गया था। मैंने सोचा हो ना हो ये हरिहर ही है! वो जिन्ना को अपने साथ उड़ा के दिल्ली ले गया होना है। अब भी एक उम्मीद सी मेरे अन्दर बाकी थी।

अक्तूबर का पहला हफ्ता आया और सुषमा का जल के राख हो चुका घर अब किसी ने कब्ज़ा कर के फिर से बनाना शुरू किया था। मैं एक दिन ऐसे ही, उसके पुराने तबेले के पास गयी तो मुझे कुछ अजीब सा लगा। मैंने आवाज़ दी – ‘हरिहर?’ तो अन्दर से रोने की आवाज़ आई। जा के देखा तो टूटे-फूटे तबेले के कोने में हरिहर बैठा है. बिचारा सूख के छुआरा हो गया था। और जगह-जगह चोटें! मैंने पूछा तू कब से हैं यहाँ पे? तो कुछ बोला नहीं। बोला ‘सुषमा बहनजी ठीक हैं, उनको मैं अमृतसर छोड़ आया।’ मैं उसकी हालत ही देख रही थी जब वो खुद बोला – ‘मैं नहीं कर पाया। उस दिन दंगे हो गए और मैं दंगे रोकने में ही दिन भर इधर-उधर भागता रहा। कभी अमृतसर, कभी लाहौर। रात को जब मुझे जिन्ना को लेके गांधी जी के पास होना चाहिए था, उस वखत मैं जलते घरों में से जिंदा लोगों को बाहर निकाल रहा था। दिन गुज़र गया, बंटवारा हो गया, गांधी जी को शकल दिखाने की हिम्मत ही नहीं हुयी उसके बाद। पिछले १५ दिन से यहीं पड़ा हूँ।’ मैंने पूछा अब आगे क्या? तो बोला ‘आगे कुछ नहीं। हरिहर हार गया आज।’

मैं उसकी बातें सुनके पूरी तरह टूट सी गयी। वो बोला ‘आप बस आखिरी बार शक्ति दे दो। मैं एक बार अपना गाँव टोबा टेक सिंह भी देख आऊँ। पता नहीं कब से नहीं देखा!’ मैंने मन में कहा, उड़ जा परावा और वो जैसे तेज़ हवा में पतंग लहराती है, वैसे टेढ़ा-मेढ़ा हो के उड़ गया।

उसके बाद मैंने उसको कभी नहीं देखा। १ हफ्ते बाद हम लोग, दरवाजे पे दीवा जला के, और अपनी भैंसों को १५-२० दिन का चारा-पानी देके आ गए। आने के बाद मुझे कई बार लगा हरिहर आस-पास कहीं है, और जब भी ऐसा लगता, मुझे ये भी लगता कि बंटवारा ख़तम हो जाएगा और हम वापस अपने घर चले जायेंगे।

**********

वो बस यहीं रुक गए. इसके बाद सुबह हो गयी, मैं कुछ घंटों के लिए सो गया। जब उठा तो देखा झाई जी सो ही रहे थे। मेरे निकलने का वक़्त हो गया था तो सोचा उन्हें एक बार जगा के बता दूं। उन्हें जगाया तो उनके चेहरे पर वही शून्य भाव था। आँखों में किसी तरह की पहचान का कोई निशाँ नहीं। मैंने पूछा ‘झाई जी…पहचाना?’ और वो बोले ‘हरिहर?’ इस बार मैंने मुस्कुरा के कहा – ‘हाँ!’

(Originally published in ‘Chakmak’ magazine, published by Eklavya, Bhopal)